September 8, 2024

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।  व्यक्ति, समाज या परिवार में इसलिए रहते हैं कि उन्हें एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती है। परिवार का अर्थ ही है मातपिता, दादादादी, चाचाचाची, भाईबहन का समूह। इन्हींसे परिवार बनता है और कई परिवारों के मेल से समाज बनता है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से मोहल्ला ,गाँव ,शहर, राज्य और राष्ट्र बनता है।इसलिमनुष्य की समाज के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी होती है, जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित सुसंस्कृत नहीं हो  सकता। अतएव   जो भी व्यक्ति समाज में रहता है, वह एक दूसरे से जुड़ा रहता है,

 सुखसंपन्न समाज तभी निर्मित हो सकता है, जब मनुष्य व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बने। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। समाज में पारस्परिक सहानुभूति, प्रेमभावना, उदारता , सेवाभाव, व संगठन की भावनाएं अत्यंत आवश्यक हैं। इसीसे समाज का विकास और समृद्धि संभव है। समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व हैपरमार्थ। समाज के जरूरतमंद व निराश्रित व्यक्तियों की सेवा करना व्यक्ति का एक महान कर्तव्य है

समाज का क्या महत्व है?

समाज ही मनुष्य को सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध करवाता है,एक-दूसरे को आपस मे बांधे रखता है, जो उसके जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण  है। जिस प्रकार से व्यक्ति  को अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए समाज की आवश्यकता होती है उसी प्रकार से समाज को भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए व्यक्तियों  की आवश्यकता होती है।हमारे  सामाजिक मूल्य दर्शाते हैं कि हम समाज से कैसे संबंधित हैं। सामाजिक मूल्यों में न्याय, स्वतंत्रता, सम्मान, समुदाय और जिम्मेदारी शामिल हैं। आज की दुनिया में, ऐसा लग सकता है कि हमारा समाज कई मूल्यों का पालन नहीं कर रहा है। हमारे बीच  भेदभाव, शक्ति का दुरुपयोग, लालच आदि में वृद्धि हुई है।हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार 84 कोटि यौनियो के बाद मनुष्य जीवन बड़ी कठिनाई से मिलता हैं. जो भी विस्वास  हो मगर इस बात में कोई संदेह नहीं हैं कि समस्त जीवों में मानव जीवन श्रेष्ठ हैं. उसकी श्रेष्ठता का कारण मस्तिष्क हैं,जिसमे सोचने विचारने सही गलत का निर्णय लेने की क्षमता है, जो अन्य जीवधारियों मे  उतना विकसित नहीं हैं.जितना कि मानव मे।

सभी जीव धारी भोजन के लिए परस्पर एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं, उन्हें किसी दूसरे की कष्ट पीड़ा का ज्ञान भी नहीं होता हैं, मगर मानवएक सामाजिक प्राणी हैं, जो सभी के साथ मिलजुलकर समाज में समूह मे रहता हैं और समाज की गतिविधियों कानून कायदों में बंधकर अपनी सामाजिक कर्तव्यों  का निर्वहन भी करता हैंअपना पेट तो जानवर भी भरते हैंमगर मानव में ख़ास बात यह हैं कि वह समूचे समाज के हित की सोचता हैं तथा हर जरूरत मंद की मदद करने के लिए भी आगे आता हैं.

 निस्वार्थ भाव से किसी दूसरे की गई मदद को ही समाज सेवा कहा जाता हैं. समाज सेवा एक पुण्य कार्य हैं, इसके कारण लोग अमर हो जाते है तथा उन्हें सदियों तक याद भी किया जाता हैं। सेवा से बड़ी से बड़ी बुराई को भी दूर किया जा सकता है, गोस्वामी तुलसीदास ने बहुत ही सुंदर पंक्ति लिखी हैं “परहित सरिस धर्म नहीं भाई”, अर्थात दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं हैं,में प्रकृति से  परोपकार के गुणों को सीखकर हमे निस्वार्थ सेवा का गुण  अपनाना चाहिए,प्रकर्ति न हमे प्रकाश, ऊष्मा,ऊर्जा  जीवन सब कुछ निस्वार्थ ही देती है, परोपकराय फलति वृक्षह

मनुष्य के  दिल से यदि  परोपकारी गुण गायब हो गया तो यह संसार पशुवत हो जाएगा, जहाँ चार पैरों के जानवर और मनुष्य में कोई फर्क नहीं रह जाएगा. किसी समाज अथवा राष्ट्र की उन्नति व प्रगति के लिए सभी लोगों का खुशहाल होना जरुरी हैं. यदि कुछ लोग भी दुखों से पीड़ित रहेगे तो वह समाज आगे नही बढ़ पाएगा। यदि समाज के एक वर्ग मे गरीबी है,दुख है,पीड़ित है तो वह समाज निश्चय ही दुर्गति को प्राप्त होगा.  दुःखकी तासीर ही उतनी कष्टदायक है, कि जो लोग भी सुख सम्पन्न है वे भी  पीड़ितों को दुखी देखकर सुखी जीवन नहीं जी पाएगे.बीमारी  गरीबी या प्रताड़ना से युक्त सामाजिक वातावरण में कभी भी सुख सम्रद्धि का वास नहीं होता हैं समाज की ,खुशहाली में इन बाधकों को तभी दूर किया जा सकता हैं जब प्रत्येक नागरिक निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने समाज के पीड़ित एवं दुखी लोगों की मदद करे क्योंकि समाज के बिना किसी भी व्यक्ति का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हैंसर्वशक्तिमान व्यक्ति भीयहद यह दावा नहीं कर  सकता कि उसने कभी किसी का सहयोग नहीं लिया अथवा भविष्य में नहीं लेगा. हमें जीवन निर्वाह के लिए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से समाज से सहयोग की जरूरत होती हैंऐसे में अपने ह्रदय में भी समाज सेवा के भाव रखकर उपेक्षित, वंचित या पीड़ित व्यक्ति की मदद जरुर करें. समाज सेवा के बारे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा कि मरा वह नहीं कि जो जिया न आपके लिए, वही मनुष्य हैं कि जो मरे मनुष्य के लिए मानव सेवा के कार्य में कष्ट जरुर झेलना पड़ता हैं पर इससे प्राप्त आत्म संतोष का सुख अलग ही प्रकार का होता हैंसेवाभावी मनुष्य को सम्मान की नजर से देखा जाता हैं, सेवा करते समय पात्र की जांच अवश्य की जानी चाहिए, जिस व्यक्ति की मदद कर रहे है वाकई में उसे मदद की आवश्यकता नहीं है तो उसे हम सेवा नहीं कह सकते हैसामूहिक कल्याण के भाव से दीन दुखियों, घायलों, अपंगो और अनाथों की हर सम्भव मदद करनी चाहिए। सभी को अपने दिल में समाज एवं देश के प्रति कुछ करने का जज्बा रखना चाहिएजब भी सेवा का मौका मिले हमें आगे आकर उसे भुनाना चाहिएक सामाजिक नागरिक के रूप में हमारा यह दायित्व भी हैं कि हम समाज में व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों को खत्म करने की दिशा में काम करें और लोगों को भी प्रेरित करें, ऐसे छोटे छोटे प्रयासों से ही सामाजिक आन्दोलन कर बड़े सुधार किये जा सकते हैं. मनुष्य जन्म पाकर हमें जब भी अवसर मिले किसी की मदद के लिए आगे आना चाहिए, तभी सच में हमारा मनुष्य के रूप में जीवन सफल माना जाएगा.गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा हैं सेवा धरम कठिन जग जाना।’ यह समाज सेवक को जीवन में बड़े बड़े त्याग करने पड़ते है तब जाकर वह आदर्श स्थापित कर पाता हैं. व्यक्तिगत लाभ और स्वार्थ के झरोखों को बंद कर भोग विलास से दूरी बनाकर काँटों के ताज को पहनना पड़ता हैं.भारतीय समाज में भगवान श्रीराम से बढ़कर कोई आदर्श नहीं हो सकता. उन्होंने काटे के पथ को चुना तथा मानव मात्र की सेवा को ही ईश्वर सेवा मानकर चले थे, तभी तो आज हम उन्हें अनुकरणीय मानते हैं.

एस एल शिवा

सह संपादक

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *